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“मंजिल चाहे कितनी भी ऊंची क्यों ना हो, रास्ता हमेशा पैरों के नीचे ही होता है

अवतार आरज़ू की ग़ज़लें

1
वो बुलन्दीयों से ऐसे मेरा घर देखता है,
आईने की दरारें जैसे पत्थर देखता है।
सिमट जाती हूँ उनके होठों पे बासूरी बनकर,
वो लबों से जब भी मुझे भर भर देखता है।।
हसरते ख्वाब हुई कुछ गम ना था लेकेन,
मेरी पाकीजगी को भी वो बे-नजर देखता है।।
तीरगी का सफर हो कि अंधेरों की बारिशों,
इक चिराग तुम्हें अब भी दर-ब-दर देखता है।।
घुटन दिल की 'आरजू' सदा दे रही है,
वो दुआओं में अब भी असर देखता है।।

2
मैं राख हूँ मुझे ना हवा में ऊछालीयें,
गर हो सके तो अपना दामन संभालीयें।
जिंदगी तेरे जख्मों से शिकायत नहीं मुझे,
जब भी संभलना चाहा तूने गिरा दीयें।।
मायूसीओं का सफर वो भी तीरगी के साथ,
जज्बों की लौं ने कितने ही उजाले बना लीयें।।
इक फरेब ने कितनी ही बस्तीयां जला दी,
विशवाश ने मंदिरों में भी 'शिवाले बना लीयें ।।

   आवतार आरज़ू

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