एक युवा संन्यासी अपने गुरु की खूब सेवा करता, पैर दबाता और गुरु से कहता कि कोई चमत्कारी शक्ति दे दो। कई महीनों तक जब वह युवा संन्यासी अपने गुरु के पीछे पड़ा रहा तो गुरु ने घबड़ाकर कहा- अच्छा भई, यह मन्त्र है। छोटा सा मन्त्र है और तुझे सिर्फ़ पांच बार पढ़ना है। इसे पांच बार पढ़ने से ही तुझे सिद्धि उपलब्ध हो जाएगी। तू जो भी करेगा, करना चाहेगा, हो सकेगा लेकिन एक बात का ख्याल रखना कि जब भी तू मन्त्र पढ़े तब बन्दर की याद न आये। उस शिष्य ने कहा- मुझे बन्दर तो जिन्दगी में कभी याद नहीं आये तो अब क्यों आएंगे। वह शिष्य की कुंटिया से बाहर निकला ही था कि उसे बन्दर ही बन्दर याद आने लगे। घर जाकर उसने बार-बार मन्त्र पढ़ने की कोशिश की लेकिन जैसे ही मन्त्र शुरू करता उसके पहले बन्दर मौजूद हो जाता। रातभर उसने चेष्टा की कि पांच बार न सही कम से कम एक बार तो बिना बन्दर की याद के इस मन्त्र को बोल लूं परन्तु वह कर नहीं पाया। वह आधी पागल हालत में सुबह गुरु के पास आया और बोला कि तुम भी हद के आदमी हो एक तो वर्षों की सेवा के बाद मन्त्र दिया फिर यह बन्दर क्यों साथ दे दिया ? अगर बन्दर ही शर्त थी तो न कहते मुझे कौन से याद आने थे। गुरु बोला- मैं भी क्या कर सकता हूं इस शर्त को पूरी करने पर ही यह मन्त्र पूरे परिणाम देता है और चमत्कारीसिद्धि प्राप्त होती है।
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